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दुर्गा दास--मुंशी प्रेमचंद

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यह सलाह जयसिंह के मन में बैठ गई। धीरे-धीरे राजपूत सरदारों को सचेत किया। सबों ने अपनी-अपनी सेना संभाली और रात के पिछले पहर तक देववाड़ी के पहाड़ी प्रदेश में जा पहुंचे। सवेरा हुआ। तारों की चमक फीकी पड़ने लगी, प्रकाश का रंग बदलने लगा। अपने-अपने घोंसलों से निकलकर पक्षियों ने शाखाओं पर ईश्वर का गुणगान प्रारम्भ किया। अजान सुनकर मुगल सरदारों ने भी नमाज की तैयारी की। खेमे से बाहर निकले थे कि बस, जान सूख गई। कहां की नमाज; और कहां का रोजा! यहां तो प्राणों पर आ बनी। अकबरशाह की तो कुछ पूछो ही न। जो कल बादशाह बने बैठे थे, आज भागने का रास्ता न पाते थे। चेहरे पर जो शाही झलक थी, आज फीकी पड़ गई। सोचने लगा या खुदा! माजरा क्या है! राजपूत सेना थी, कि इन्द्रजाल का तमाशा?


तैवर खां से बोला हमें दुर्गादास के चले जाने का दु:ख नहीं। दु:ख तो यह है कि चोरी से क्यों चले गये? क्या हम लोग उन्हें रोक लेते?हम लोग तो खुद ही उनके बन्दी थे, फिर छिपकर जाने का कारण क्या था।? तैवर खां ने कहा – ‘शाहजादा! इसमें दुख की कौन बात है?हम लोगों पर दुर्गादास को विश्वास नहीं आया और ठीक भी है! विश्वास कैसे आता? एक मछली सारे ताल को गन्दा कर देती है। फिर बादशाह ने छल-पर-छल किये हैं। यह दुर्गादास की भलमंसी थी, कि हम लोगों को बिना किसी प्रकार का दु:ख पहुंचाये ही छोड़कर चला गया। नहीं जान से मार डालता तो हम उसका क्या बना लेते आखिर थे तो उसी के अधीन! जो चाहता, करता।


मुहम्मद खां ने कहा – ‘भाई! दुर्गादास ने जो कुछ किया, अच्छा किया। अब हम लोगों को चाहिए कि दुर्गादास को दिखा दें कि सब आदमी एक-से नहीं होते। अगर कुछ मुसलमान झूठे होते हैं, तो कुछ अपनी प्रतिज्ञा के सच्चे भी होते हैं। इसलिए शाहजादे को जाने दो कि वह दुर्गादास की तलाश करें। हम लोग अपना लश्कर लेकर मोर्चे पर चलें और बादशाह से लोहा लें, मरें या मारें। अपनार् कत्ताव्य पालन करें। यह खबर पाकर दुर्गादास अपनी करतूत पर लज्जित होगा।


तैवर खां को यह सलाह पसन्द आई। अकबरशाह को विदा किया और अपना लश्कर लेकर औरंगजेब के मुकाबिले पर चला। रास्ते ही में औरंगजेब की सेना से मुठभेड़ हो गई। यह लश्कर मुअज्जम और अजीम की सरदारी में था।ये दोनों ही अकबरशाह को अपने पथ का कण्टक समझते थे, परन्तु उन्हें रास्ता साफ करने की घात न मिलती थी। आज मुंहमांगी मुराद मिली। जी तोड़कर लड़ने लगे। पहले तो तैवर खां के सिपाहियों ने बड़ी बहादुरी दिखाई; मगर फिर मौलवी साहब का फतवा सुनते ही तोते की भांति आंखें बदल दीं और अपने दोनों सरदारों को घेरकर खुद ही मार डाला।


मुहम्मद खां और तैवर खां के मारे जाने के पश्चात अजीम ने अकबरशाह की बहुत खोज की, परन्तु पता न चला। विवश होकर अजमेर लौट पड़ा, क्योंकि सेना आधी से अधिक घायल हो गई थी, इसलिए वीर दुर्गादास का सामना करने की हिम्मत न रही। नहीं तो विजय के घमण्ड में आगे जरूर बढ़ता। घमण्ड तो दुर्गादास चूर ही कर देता; मगर बेचारे अकबरशाह के प्राण न बचते। किसी-न-किसी की दृष्टि पड़ ही जाती क्योंकि वह वीर दुर्गादास की खोज में देववाड़ी की पहाड़ियों पर इधर-उधर भटकता फिरता था।संयोगवश शामलदास के भेंट हो गई, जो पांच सौ सवार लिये देववाड़ी के मार्ग की चौकसी कर रहा था।पहले तो शामलदास को सन्देह हुआ कि कदाचित भेद लेने आया हो; लेकिन बातचीत होते ही सन्देह जाता रहा, और उसे वीर दुर्गादास के पास भेज दिया। शाहजादे को देखकर दुर्गादास लज्जित होकर बोला शाहजादा! मुझे क्षमा करना, मुझसे अपनी इतनी आयु में पहली ही भूल हुई है। आज तक मैंने किसी के साथ विश्वासघात नहीं किया और न किसी निर्दोष पर तलवार ही उठाई है। आपके साथ जो मुझसे चूक हुई; वह धोखे में हुई। लीजिए यह अपने पिता का पत्र पढ़िए और आप ही कहिए,ऐसी स्थिति में हमारार् कत्ताव्य क्या होना चाहिए था।?


शाहजादे ने पत्र पढ़कर कहा – ‘भाई दुर्गादास, इसमें तुम्हारा दोष नहीं, यह हमारी कम्बख्ती थी। मृत्यु की सामग्री तो पत्र ही में थी,परन्तु न जाने अभी भाग्य में क्या, जो जीवित रहे? खुदा जाने, तैवर खां पर कैसी गुजरी? दुर्गादास ने कहा – ‘शाहजादा! मुझे दु:ख इस बात का है, कि भूल की मैंने और मारे गये मुहम्मद खां और तैवर खां।


दुर्गादास का यह अन्तिम वाक्य पूरा भी न हुआ था। कि 'अल्लाहो अकबर' की आवाज कानों में सुनाई दी। शाहजादे पर फिर सन्देह उत्पन्न हुआ, मगर आगे बढ़कर पहाड़ी से जो नीचे झांका तो औरंगजेब की सेना दर्रे में फंसी देखी। फिर क्या था।, राजपूतों को लेकर टूट पड़ा! लगी दुतरफा मार पड़ने। मुगल सेना जिस तरह भागती थी, उसी तरफ अपने को राजपूतों से घिरा पाती थी। दुर्गादास ने सिवा एक पहाड़ी दर्रे के चारों तरफ से देववाड़ी की पहाड़ियां घेर रखी थीं। इस दर्रे के तीनों तरफ ऊंची-ऊंची पहाड़ियां थीं और एक तरफ रास्ता था।; वह भी छोटा-सा। औरंगजेब यह क्या जाने की हमारे बचने का रास्ता नहीं, चूहादान है? पिल पड़ा। पीछे-पीछे लश्कर भी पहुंच गया। राजपूतों ने ऐसा पीछा किया, जैसे चरवाहे भेड़ों को बाड़े में हांकते हैं। जब सारा लश्कर दर्रे में चला गया, तो राजपूतों ने खिलवाड़ की तरह वह भी रास्ता पत्थरों से बन्द कर दिया। पहाड़ियां इतनी ऊंची और इतनी कठिन न थीं कि कोई चढ़ न सके; परन्तु कठिनाई अवश्य थी। रात अभी एक पहर से अधिक तो बीती न थी, लेकिन अंधियारा हो चुका था। और चन्द्रमा का प्रकाश भी इतना न था।उस पर राजपूत ऊपर से पत्थर ढकेल रहे थे। सारांश यह है कि सब ढंग बेमौत मरने के ही थे। फल यह हुआ कि कुछ तो पत्थरों से घायल मर गये और कुछ जीते रहे; परन्तु वे भी मृतकों से किसी दशा में अच्छे न थे। उपाय तो राजपूतों ने यही सोचा था। कि एक भी मुगल जीवित न बचे, और दर्रा भी आधो के लगभग पाट दिया था।, परन्तु औरंगजेब के भाग्य को क्या करते। उसे एक छोटी-सी खोह मिल गई। बाप-बेटे दोनों बड़ी सावधानी से उसी में दुबक रहे।


जब राजपूतों का उपद्रव शान्त हुआ, तो दोनों दबे पांव बाहर निकले। रात का पिछला पहर था।चन्द्रदेव अस्त हो चुके थे। हां, चारों तरफ आकाश पर तारे जरूर झिलमिला रहे थे। दुर्गादास अपना लश्कर लेकर बुधाबाड़ी लौट आया, मैदान साफ था।, इसलिए औरंगजेब को ऊंची-ऊंची पहाड़ियों पर चढ़ने के सिवा और कोई अड़चन न पड़ी। कोई कहीं देख न ले! शत्रु के हाथ फिर न पड़ जायें! केवल यही भय था।इसलिए अपने को छिपाता हुआ बड़ी सावधानी से इधर-उधर पहाड़ियों में भटकने लगा। जैसे-तैसे भूखा-प्यासा तीसरे दिन अजमेर पहुंचा। अजीम उससे पहले ही वहां पहुंच गया था।औरंगजेब उस पर बहुत झुंझला गया और गुस्सा कुछ अजीम ही पर न था।वह जिसे पाता था।, फाड़ खाता था।जलपान के पश्चात जरा जी ठिकाने हुआ, तो सरदारों को बुलाया। जब किसी में वीर दुर्गादास का सामना करने का साहस न देखा तो अपने राज्य के कोने-कोने से मुसलमानी सेना भेजने के लिए सूबेदारों को आज्ञा-पत्र लिखवाये। फिर भी सन्तोष न हुआ। सोचने लगा कि इतनी मुगल सेना,जिसे दुर्गादास का सामना करने को भेज सकूं; एक सप्ताह में एकत्र होना असम्भव है और दुर्गादास का कुछ ठीक नहीं, न जाने कब अजमेर पर धावा बोल दे? इसलिए कोई जाल फेंकना चाहिए।

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